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ग्रावा॑णः सोम नो॒ हि कं॑ सखित्व॒नाय॑ वाव॒शुः। ज॒ही न्य१॒॑त्रिणं॑ प॒णिं वृको॒ हि षः ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

grāvāṇaḥ soma no hi kaṁ sakhitvanāya vāvaśuḥ | jahī ny atriṇam paṇiṁ vṛko hi ṣaḥ ||

पद पाठ

ग्रावा॑णः। सो॒म॒। नः॒। हि। क॒म्। स॒खि॒ऽत्व॒नाय॑। वा॒व॒शुः। ज॒हि। नि। अ॒त्रिण॑म्। प॒णिम्। वृकः॑। हि। सः ॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:51» मन्त्र:14 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर किससे मित्रता कर कौन दूर करने योग्य हैं, इस विषयको कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) प्रेरणा देनेवाले ! जो (ग्रावाणः) मेघों के समान (सखित्वनाय) मित्रपन के लिये (नः) हम लोगों को (हि) ही (वावशुः) चाहते हैं, वे (कम्) सुख को प्राप्त हों जो (अत्रिणम्) दूसरे का सर्वस्व हरनेवाला (पणिम्) व्यवहारकर्त्ता का संबन्ध करता है (सः, हि) वही (वृकः) चोर है, इस हेतु से इसे आप (नि, जही) निरन्तर मारो ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यदि धर्मात्मा विद्वान् जन धर्मिष्ठ विद्वानों के साथ मित्रता रखते हैं तो वे निरन्तर सुख को प्राप्त होकर मेघ के समान सबको बढ़ाके दुष्ट आचरण करनेवाले छलियों को शीघ्र मारते हैं ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः केन सह मित्रतां कृत्वा के निवारणीया इत्याह ॥

अन्वय:

हे सोम ! ये ग्रावाण इव सखित्वनाय नो हि वावशुस्ते कमाप्नुयुर्योऽत्रिणं पणिं सम्बध्नाति स हि वृकोऽस्तीत्येनं त्वं नि जही ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ग्रावाणः) मेघा इव (सोम) प्रेरक (नः) अस्मान् (हि) यतः (कम्) सुखम् (सखित्वनाय) सख्युर्भावाय (वावशुः) कामयन्ते (जही) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नि) (अत्रिणम्) परस्वापहारकम् (पणिम्) व्यवहर्त्तारम् (वृकः) स्तेनः (हि) खलु (सः) ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि धर्मात्मानो विद्वांसो धर्मिष्ठैर्विद्वद्भिः सह मित्रत्वं रक्षन्ति तर्हि ते सततं सुखं प्राप्य मेघवत् सर्वान् वर्धयित्वा दुष्टाचारान् कितवादीन् सद्यो घ्नन्ति ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा धर्मात्मा विद्वान लोक धार्मिक विद्वानांबरोबर मैत्री करतात, तेव्हा ते निरंतर सुख प्राप्त करून मेघाप्रमाणे सर्वांची वृद्धी करून दुष्टाचरणी व छळ करणाऱ्यांचा तत्काळ नाश करतात. ॥ १४ ॥